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दृष्टिकोण: *कौन सुनेगा ? किसको सुनाए कबीर सी खरी खरी* ? पढ़ें *कलम का बदलता कलेवर*…

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कबीर जब तक थे, खरा खरा बोलते थे। कागज कलम का उपयोग करते थे या नहीं, यह शोध का विषय है। कबीर के दोहे, धर्म, जाति, क्षेत्र की संकीर्णता से परे थे। उनकी वाणी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं थी।

 ऐसा कबीर साहित्य से स्पष्ट होता है। कबीर आज भी विचारों में जीवित है। साहित्यकार की विशेषता भी यही है, कि वह बरसों सदियों तक अपने विचारों के माध्यम से जीवित रहता है। 

कभी भी किसी कवि की रचना का अनुवाद करते हुए यह नहीं लिखा जाता, कि कवि कहता था, रचना का अनुवाद करते हुए लिखा जाता है कि कवि कहता है। यह कवि के वैचारिक अस्तित्व का वर्तमान में जीवित होने का प्रमाण है। 
       बहरहाल बात लेखन में निष्पक्षता व तटस्थता की है। पूर्वाग्रह ग्रस्त विचार स्थाई नहीं होता और न ही वह जन स्वीकृति प्राप्त कर पाता है। यूँ तो कबीर होना सरल नहीं है। कबीर होने के लिए न काहू से दोस्ती न काहू से बैर जैसी मनः स्थिति अपेक्षित होती है। कोई बुरा माने या भला, हमें जो कहना है, हम कहेंगे। ऐसे रचनाकार आजकल कम ही मिलते हैं। लगता है, कि स्वार्थ की राजनीति की तरह अभिव्यक्ति भी संकीर्णता के इर्द गिर्द ही घूमती है। 
           साहित्य हो या सामायिक चिंतन से जुड़े आलेख, पढ़कर लगता ही नहीं, कि कबीर जिन्दा भी है। खेमेबंदी वैचारिक गुलामी और बंधुआपन की प्रतीक बन गई है। कहीं केवल सत्ता को गाली देना ही लेखन का उद्देश्य रह गया है, तो कहीं किसी विशेष विचारधारा का गुणगान करके ऐसे जताया जा रहा है, जैसे केवल एक ही विचार श्रेष्ठ है। विचारों में तर्कशीलता का अकाल पड़ गया है। कोई तर्क आधारित विमर्श मानने के लिए तैयार ही नहीं है। साहित्य के अलम्बरदार केवल सरकारी पुरस्कारों के जुगाड़ में रहते हैं। 
         एक समय था, कि जब साहित्य को समाज का दर्पण कहकर अनुसरण किया जाता था। समाचार पत्रों में प्रकाशित सामग्री पर बहस हुआ करती थी तथा एक स्पष्ट निष्कर्ष उभर कर आम पाठकों के सम्मुख आता था। समाचार पत्रों के संपादक न तो स्वतंत्र विचारों का खुलकर समर्थन करते थे और न ही विरोध, सो एक घोषणा लिखकर किसी लेखक या टिप्पणीकार के विचारों के प्रति तटस्थ रहते थे। वह घोषणा आज भी लिखी रहती है, कि किसी के विचारों से सहमत होना संपादक के लिए अनिवार्य नहीं है।  

 बहरहाल आज का दौर अपने अपने सच और अपने अपने पूर्वाग्रह के साथ जीने का युग है। सब अपने अपने विमर्श को सर्वोपरि सिद्ध करने पर आमादा हैं। 

समाज में अपने अपने विमर्श के विस्तार के लिए अनेक संगठन कार्य कर रहे हैं। ऐसे में कबीर की सी खरी खरी भला कौन सुनाए और कौन सुने ? सहयोग: विनायक फीचर्स
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