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बिंदुखत्ता : कहां अटक गया राजस्व गांव ? पढ़ें खुशी से दूर क्यों जनता…

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बिंदुखत्ता। वन विभाग के उलझे दावे और अधूरी जानकारियाँ वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत जिला स्तर पर निर्णय होने के बावजूद बिंदुखत्ता को राजस्व ग्राम घोषित नहीं किया गया है।

राजस्व विभाग द्वारा फाइल को बार-बार वन विभाग के पास भेजना इस बात का संकेत है कि सरकार और राजस्व विभाग एक तरफ हैं, जबकि वन विभाग अकेले अपने पुराने दबदबे के दम पर फैसलों को प्रभावित कर रहा है।

बिंदुखत्ता की 80,000 की आबादी को लेकर वन विभाग के दावे खुद कटघरे में खड़े हैं। वन अधिकार समिति द्वारा जुटाए गए दस्तावेजों के अनुसार, वन विभाग को यह भूमि 1966 में आरक्षित वन क्षेत्र के रूप में मिली थी। लेकिन खुद वन विभाग के रिकॉर्ड में ही भारी विरोधाभास है।

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वन विभाग के अनुसार, 1968 तक बिंदुखत्ता में 3,470 हेक्टेयर भूमि पर अतिक्रमण हो चुका था। सवाल उठता है कि मात्र दो साल में इतनी बड़ी जमीन पर कब्जा कैसे हो गया? यह दावा और भी संदिग्ध तब हो जाता है जब 1975 की वन विभागीय रिपोर्ट बताती है कि तब वहां केवल 129 परिवार ही रह रहे थे, और इन्हें 136 एकड़ भूमि देने पर सहमति बनी थी।

अब प्रश्न उठता है कि अगर 1968 में हजारों हेक्टेयर भूमि पर अतिक्रमण हुआ था, तो 1975 तक वहां केवल 129 परिवार ही कैसे थे? वन विभाग खुद अपने ही आंकड़ों में फंसा नजर आता है।वन संरक्षक, पश्चिमी वृत्त की 2006 की रिपोर्ट भी यही दर्शाती है कि 1975 में दर्ज निवासियों की संख्या वास्तविकता पर आधारित नहीं थी। इसीलिए इस आधार पर राजस्व ग्राम की अधिसूचना जारी नहीं की जानी चाहिए।

लेकिन सवाल यह उठता है कि जब वन विभाग खुद अपनी पुरानी रिपोर्टों को संदिग्ध मान रहा है, तो फिर 1968 में 3470 हेक्टेयर भूमि पर अतिक्रमण और 1975 में केवल 129 परिवार के ही बसे होने की सच्चाई क्या है?सच्चाई सामने लाने के लिए एक और RTI दायर की गई, जिसमें 1966 से पहले इस भूमि का मालिकाना हक, विस्थापन प्रक्रिया और बंदोबस्ती रिपोर्ट मांगी गई।

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लेकिन नैनीताल, देहरादून और लखनऊ के दफ्तरों के चक्कर लगाने के बावजूद वन विभाग कोई जानकारी उपलब्ध नहीं करा पा रहा।

अब स्थिति यह है कि अगर मार्च तक सूचना नहीं दी गई, तो वन विभाग को शपथ पत्र में लिखना पड़ेगा कि उनके पास कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।जो विभाग हमसे 75 साल पुराने रिकॉर्ड मांग रहा है, वह खुद 50 साल पुराने दस्तावेज भी नहीं दे पा रहा। अब सवाल यह है कि क्या वन विभाग को इस भूमि पर अपने दावे से खुद ही पीछे नहीं हट जाना चाहिए।

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