नैनीताल।
राजनीति का नशा भी क्या खूब होता है मित्रो इसका नशा जिसको हो गया वह अपनी घरबार की दुनियां भूल जाता है। ये भी एक रिसर्च है इसमें डिग्री लेना भी कोई कहीं अन्य डिग्री से कम नहीं है। जमीन से जुड़कर जिसने भी काम किया और जनता का दिल जीता वह राजनीति में पास हुआ है। कई नेतागिरी के नशे में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं और मंजिल नहीं मिल पाती वहीं दूसरी ओर कुछ चेहरे चुनाव में जनता को भा जाते हैं जो बिन पैसे जीत जाते हैं इसमें राजयोग ही कहा जायेगा। एक कहावत है * सफड गई तो सिद्धों की और नहीं तो नाथों की * मतलब इंसान साधु समान हो जाता है। जिसने जनता का दिल जीता वह कामयाब होता है लेकिन हाल के दिनों में राजनीति का चोला बदला है बिन पैसे कुछ भी संभव नहीं है। राजनीति में पूजीवाद का शिकंजा इतना मजबूत हो रहा है की सही तस्वीर सामने नहीं आ रही है। आज संघर्ष में तपे नेता पूंजीवाद के तले घुटन महसूस कर रहे हैं तो वहीं भाजपा ऐसा दल उभरकर आया है कि गरीब से गरीब जीतकर कमल निशान लाया है। भारत में अब राजनीति का परिदृश्य बदल रहा है इसलिए अब वो आंदोलन भी नहीं होते जिनसे नेता उभरकर आते थे। आज सोशल मीडिया माध्यम बनाकर लोगों को अपना बनाने की राजनीति होने लगी है। काम काम दिखावा ज्यादा! पहले हर गांव में एक दो लोग समाज सेवी होते थे जो पूरे दिन गांव में लोगों को समझते और समझाया करते थे जिनको समझदार लोग हर माह कुछ ना कुछ सहयोग करते थे जिनसे उनका भी घर चलता था आज बदलते समाज में समाज सेवी का उपहास ना उड़ाया जाए यही कम है। आज देश में हिंदुत्व का शंखनाद हो रहा है भारत की राजनीति का नया ध्रुवीकरण धर्म के आधार पर हो गया है। हिंदू समाज अब सनातन धर्म का भारत मांग रहा है अब हर सरकार की मजबूरी होगी कि वह बहुसंख्यक आबादी को न्याय दे। आज हर आदमी पत्रकार है तो हर आदमी नेता और अधिकारी है जिसे कानून की जानकारी है वह विद्वान है। पहले नेता बनने के लिए पुलिस से मार खाना , आंदोलन में अनशन शुरू करना जेल जाना जनमुद्दों पर आंदोलन कर सरकार को बैक फुट पर लाने जैसे आंदोलन होते थे इसमें नेता निकलकर आते थे उनको लोग सम्मान देते थे और वह भी न्याय करते थे वहीं आज कितना पैसा है, कितनी मिलें हैं, कितना पार्टी फंड में दोगे जैसे सवाल गरीब घर से नेता नहीं आ पा रहे हैं! संसाधनों का अभाव प्रतिस्पर्धा में बाधक बन रहा है। आज पूंजीपति मीडिया, राजनीति सहित शिक्षा सहित सभी लाभ के विभाग में अपनी पैठ बना चुके हैं जिससे अच्छे लोग बहुत कम कामयाब हो रहे हैं दिखावा और बंदोबस्त के साथ ही पांव छू लेने की नायब कला भी राजनीति का अर्थशास्त्र बदल रही है। आज प्रतिभा को जगह जहां मिल रही है वहीं लोग नेता की हर चालाकी पर पैनी नजर रखते हैं। पहले नेता की हुकूमत से लोग डरते थे आज लोग विरोध करने की क्षमता रखते हैं। बदलते राजनीति के साथ जिसने अपने को फिट नहीं किया वह नेता सफल नहीं हो सकता। पिल्लों पर यकीन नमकीन की तरह है कोई भी हाथ मार सकता है। धरातल पर काम करने वाले को ही वोट मिलेगा ये भी दावा नहीं कर सकते। जनता का मूड जिसे नेता चुनने का हो जाता है वो ताज पा जाता है। जनता के बुनियादी सवालों को उठाना उनको सरकारी योजना का लाभ दिलाना भी एक सच्ची समाज सेवा है लेकिन आज कुछ लोग इसमें भी चुंगी मार खाते हैं फिर कहते हैं वोट नहीं मिला। जनता आज सच और झूठ में फर्क समझ रही है दूध पीने वाला बच्चा आज मां और पिता को शिक्षित करता है तब राजनीति का अर्थशास्त्र क्या होगा कैसे सबका दिल जीता जाए ये कला अपने ही अंदर तलाश करनी होती है। संघर्ष करना चाहिए जनसमस्याओं के समाधान के लिए ना कि किसी की नेतागिरी चमकाने के लिए। नेता बनने के लिए सबसे पहले दयालु भाव, परमार्थ, निस्वार्थ भाव होना चाहिए क्योंकि प्रभु को जो भाव पसंद है वही भाव जनता को भी पसंद है।
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