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खनन की बदल गई परंपरा! गौला नदी को लगा ग्रहण! पढ़ें संपादकीय जीवन की कलम से…

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संपादकीय

जीवन की कलम से…

वाहन स्वामियों और सरकार में अनबन!

उत्तराखंड में नदियों से खनन का कारोबार हर साल एक अक्टूबर से तीस जून तक चलता था। कुछ सालों से प्रचुर मात्रा में खनन सम्पदा न होने के कारण परंपरा टूट गई और नदियों से माल निकाल कर लाने वाले वाहन तय कर दिए गए जिनको वन विभाग ने परमिट दे दिया। इसके बाद आम वाहन स्वामियों का नदी में प्रवेश बंद! केवल परमिट वाला वाहन ही नदी में जाएगा! इसके बाद रेत और बजरी की छाने जाने की परंपरा को भी विराम जैसा लगा और मजदूर आरबीएम भरने लगे और स्टोन क्रशर लगाने का सिलसिला चल पड़ा आज तराई/भाबर में हर तरफ स्टोन क्रशर नजर आते हैं। इस काम में लगभग एक लाख लोग अपना रोजगार करते हैं तो वहीं मजदूर के आने से दुकानदार भी रोजगार पाते है, गाड़ी चली तो मिस्त्री से लेकर हवा डालने वाले को तक कहीं न कहीं रोजगार नदी से मिलता है। पढ़े लिखे लोग रोजगार न मिलने के कारण गाड़ी लेकर अपना जीवन यापन करते हैं। गौला नदी नहीं खुलने से सरकार को भी भारी राजस्व का नुकसान हो रहा है। नदी से जुड़े लोग सड़कों पर उतर कर अपनी नाराजगी जता रहे हैं लेकिन लीज पट्टे जारी होने से नदी की मूल्य दर महंगी बताई जाती है। वाहन स्वामियों का कहना है जब पूरे प्रदेश में एक रेट नहीं होता वह नदी में वाहन नहीं भेजेंगे। लंबे समय से मांग कर रहे वाहन स्वामियों का कहना है उन्होंने अपनी बात शासन और प्रशासन को कह दी है लेकिन अब तक उनकी मांग पूरी नहीं हुईं है। सरकार गौला नदी की लीज रिनुवल करवाने के लिए जहां तैयारी में है वहीं टकराव के चलते सरकार को करोड़ रूपए रोज का नुकसान हो रहा है। सरकार क्या निर्णय लेगी और कैसे नदी से चुगान करवाती है ये सब सरकार पर निर्भर करता है। नदियों से हर साल भू कटाव होता है कई लोग बेघर हो गए अब तक इसके लिए तटबंध बनाने पर विचार भी जरूरी है। करोड़ों रुपए देने वाली नदी से गावों को बचाना भी कार्यदाई संस्था की जिम्मेदारी होनी चाहिए लेकिन कोष होने के बावजूद खनन समिति ने कभी इस तरफ नहीं देखा। विभागीय तटबंध के अलावा जिला खनन समिति की भी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। नदी किनारे भू कटाव रोकना समिति की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। एनजीटी के मानकों की अनदेखी घातक सिद्ध होगी! सरकार और वाहन स्वामियों के बीच समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।

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सम्पादक

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