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ब्रेकिंग न्यूज: आजादी के आंदोलन में पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के साप्ताहिक समाचार पत्र प्रताप ने किया जागरूक! पढ़ें जयंती पर खास अपडेट…

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निष्पक्ष मानवीयता, समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों पर चलते हुए कर्तव्य के पथ पर प्राणों की आहूति देने वाले गिने चुने भारतीयों में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।

श्री विद्यार्थी ने सिद्धांतों की राह पर चलते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग करके यह सिद्ध कर दिया कि पत्रकार और साहित्यकार केवल लिखते ही नहीं है बल्कि शहीद भी होते हैं।

शहादत की बलिवेदी पर सम्मान के साथ चढ़ने वाले विद्यार्थी जी के जीवन का प्रत्येक पल न केवल अनुकरणीय है, बल्कि ऐसे लोगों के लिए सबक भी है जो समाज में वैमनस्य उत्पन्न करने का कार्य करते हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन की उत्तर भारत के घर-घर में अलख जगाने वाले अमर शहीद पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जितने करीब अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के थे उतने ही वे भारत के महान क्रांतिकारी भगतसिंह के लिए भी अनुकरणीय थे। भगतसिंह विद्यार्थी जी को अपना गुरू मानते थे।

सच तो यह है कि विद्यार्थी जी के लेखों एवं स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न कार्यक्रमों के प्रस्तुतिकरण ने पंजाब सहित उत्तर भारत में अनेक युवाओं को स्वतंत्रता आंदोलन का सेनानी बनने की प्रेरणा दी।

देश को स्वतंत्रता दिलाने और राष्ट्रीय एकता को कायम रखने के लिये प्राणों का उत्सर्ग करने वाले पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म इलाहाबाद में 25 अक्टूबर 1890 को अपने नाना मुंशी सूरज प्रसाद के यहां हुआ था। विद्यार्थी जी के पिता जय नारायण श्रीवास्तव तत्कालीन ग्वालियर रियासत में एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल में शिक्षक थे।

वे मुंगावली नामक स्थान पर पदस्थ थे जो अब मध्यप्रदेश के गुना जिले की एक तहसील है। विद्यार्थी जी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा तत्कालीन भेलसा (अब विदिशा) में हुई। यहां उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की।

बाद में उनके पिता का तबादला पुनः मुंगावली हो गया और विद्यार्थी जी आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद एवं कानपुर चले गए। बचपन से ही पढ़ने के शौकीन विद्यार्थी जी की इस रूचि को इलाहाबाद और कानपुर में भरपूर पोषण मिला।

आर्थिक परेशानियों के चलते यहां विद्यार्थी जी अपने कॉलेज की शिक्षा पूरी नहीं कर सके और जीविकोपार्जन के लिए नौकरी करने लगे।

सरस्वती के पुजारी को शायद लक्ष्मी के साथ रहना रास न आया और वे सरकारी नोटों के बीच सरस्वती साधना करते रहे। इसी कारण उन्हें यह नौकरी छोड़ना पड़ी। इसी बीच विद्यार्थी जी का संपर्क पं. सुंदरलाल से हुआ जो उस समय कर्मयोगी नामक साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला करते थे।

तब उर्दू साप्ताहिक स्वराज्य के संपादक शिवनारायण भटनागर से भी विद्यार्थी जी की मित्रता कायम हो चुकी थी। उन दिनों इन दोनों ही अखबारों के तेवर काफी उग्र माने जाते थे।

उर्दू स्वराज्य के संपादकों को ढाई वर्षों में ही 125 साल की सजा सुनाई जा चुकी थी। पं. सुंदरलाल और शिवनारायण भटनागर के साथ विद्यार्थी जी ने भी इन दोनों पत्रों में अपनी क्रांतिकारी लेखनी का परिचय दिया।

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लेकिन विद्यार्थी जैसे यायावर लेखक का तो जैसे यहां भी ठहरना प्रकृति को मंजूर नहीं था सो उनके एक लेख आत्मोत्सर्ग से प्रभावित होकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें अपनी पत्रिका सरस्वती में कार्य करने के के लिए बुला लिया।

तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में श्रेष्ठतम मानी जाने वाली पत्रिका ‘सरस्वती’ में विद्यार्थी जी ने साहित्य का तो रसास्वादन किया परंतु उनके क्रांतिकारी मन को इससे संतोष न मिल सका और उन्होंने प‌द्मकांत मालवीय के ‘अभ्युदय’ नामक साप्ताहिक में अपने विचारों का प्रसार करना प्रारंभ कर दिया।

इसके बाद अपने विचारों को व्यापक रूप देने के लिए विद्यार्थी जी ने काशीनाथ के साथ मिलकर प्रताप नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया।

इस समाचार पत्र ने स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा हजारों नौजवानों को आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया।

विद्यार्थी जी के मन में देश प्रेम कितना कूट-कूट कर भरा था। इसका अंदाज इसी बात से लगाया जाता है कि वे प्रताप के मुख पृष्ठ पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की निम्न पंक्तियां छापते थे- जिसको न निज गौरव न निज देश का अभिमान है। वह नर-नहीं, नर पशु निरा, और मृतक समान है।

विद्यार्थी जी के नेतृत्व में प्रताप ऐसा समाचार पत्र बन गया था जो लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों की जानकारी देता था।

प्रताप ने जहां गांधी जी द्वारा किए जा रहे अहिंसक संघर्ष की व्यापक कवरेज की, वहीं काकोरी के मुकदमें और बाद में सुखदेव, राजगुरू और भगतसिंह को फांसी के मुद्दे को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया।

उत्तर भारत में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों एवं पं. सुंदरलाल और विद्यार्थी जी के विचारोत्तेजेक लेखों से मात्र सात वर्ष में ही साप्ताहिक प्रताप एक दैनिक में परिवर्तित हो गया।

विद्यार्थी जी ने प्रताप के पहले अंक से ही क्रांति का बिगुल फूंकना प्रारंभ कर दिया था। वैसे विद्यार्थी जी ने अपने पहले ही संपादकीय में स्पष्ट कर दिया था संपूर्ण मानव जाति का कल्याण हमारा प्रथम उद्देश्य है। मानव जाति के कल्याण के लिए विद्यार्थी जी सतत प्रयत्नशील रहे।

इसी सिलसिले में उन्होंने लिखा था ‘मैं स्वतंत्रता संग्राम का पक्षपाती हूं। समस्त सत्ताओं का विरोधी हूं चाहे वह नौकरशाहों की हो या जमींदारों की, – धनवानों की हो या ऊंची जातियों की।’ उस समय अंग्रेज सत्ता पर काबिज थे और उनकी दमन पूर्ण नीतियों से सभी त्रस्त थे।

विद्यार्थी जी ने अंग्रेजों की इन नीतियों का डटकर विरोध किया, फलस्वरूप प्रताप अंग्रेजों को खटकने लगा। बदला लेने में माहिर अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी को पांच बार जेल यात्राएं भी करायीं। फिर भी विद्यार्थी जी अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं हुए।

गांधीजी ने जब चम्पारन जिले में पहली, बार अहिंसक संघर्ष का सूत्रपात किया तो सबसे पहले यह खबर विद्यार्थी जी के प्रताप में ही छपी और उत्तर भारत में शांति के पुजारी के रूप में उनकी पहचान बनी।

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वहीं दूसरी ओर 1926 में काकोरी ट्रेन डकैती के मामले में कांग्रेस के बडे़ नेताओं का विरोध करते हुए विद्यार्थी जी ने इस मामले को विस्तार पूर्वक उठाया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान प्रताप प्रेस क्रांतिकारियों के घर का भी काम करता था।

बटुकेश्वर दत्त, विनयकुमार सिन्हा, शचींद्र नाथ, अशफ़ाक़ उल्लाह खां सहित अनेक क्रांतिकारी प्रताप से जुड़े रहे। सरदार भगतसिंह के भी कई विचारोत्तेजक लेख विद्यार्थी जी ने प्रताप में प्रकाशित किए।

कानपुर के फीलखाना मोहल्ले में स्थित प्रताप के कार्यालय की स्थिति देखकर आचार्य शिवपूजन सहाय ने कहा था कि इतने टूटे फूटे मकान में रहकर देश की इतनी सेवा करना किसी महापुरूष का ही काम हो सकता है। अंग्रेजों के अत्याचार और अनाचार विद्यार्थी जी को अपने लक्ष्य से डिगा नहीं सके। प्रताप का प्रचार प्रसार दूर दूर तक हो गया।

तभी 2 फरवरी 1931 को इलाहाबाद में चंद्रशेखर आजाद की शहादत से क्रांतिकारियों को झटका लगा। उस समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू भी जेल में बंद थे और इन्हें फांसी देने का निर्णय लिया जा चुका था।

तभी अचानक चुपचाप 23 मार्च को इन तीनों वीर जवानों को फांसी दे दी गई। विद्यार्थी जी भी इस मामले से काफी दुखी एवं व्यथित थे। दूसरी ओर हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने की अंग्रेजों की चाल कामयाब हो गयी। कानपुर में साप्रदायिक दंगा भड़क उठा, पूरा शहर आग की लपटों से घिर गया।

जगह-जगह रक्तपात होने लगा। ऐसे में विद्यार्थी जी स्वयं को रोक न सके और ज्वाला दत्त तथा शंकरराव टालीकर के साथ शहर में निकल पडे। उन्होंने जगह-जगह जाकर लोगों को समझाया और उन्हें आपस में लड़ाई-झगड़ा बंद करने की सलाह दी। मानवता के पुजारी के रूप में विद्यार्थी जी मानव सेवा में जुट गए।

मानवता की सेवा में लगे इस निस्वार्थ पुजारी की उन्हीं में किसी एक ने हत्या कर दी जिन्हें वे बचाने पहुंचे थे। पुलिस इस सारे दौर में हमेशा की तरह मूकदर्शक बनी रही, परिणामस्वरूप शहादत का बाना पहनने वाले इस वीर की पहचान 27 मार्च को की गई और 29 मार्च को उन्हें चुपचाप पंचतत्व में विलीन कर दिया गया।

मात्र 40 वर्ष की आयु भाग्य में लिखाकर आया यह विद्यार्थी उन तमाम लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गया जिन्होंने उनके जाने के बाद पत्रकारिता की मशाल थामी। सहयोग: विभूति फीचर्स

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