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जब बने भगवान विष्णु तिरुपति बालाजी! पढ़ें कब भृगु को भागना पड़ा…

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एक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया । यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गयी । तभी वेद ने एक प्रश्न किया तो एक व्यवहारिक समस्या आ खड़ी हुई । ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष्य तो देवगण ग्रहण करते थे । लेकिन देवों द्वारा किए गए यज्ञ की पहली आहूति किसकी होगी ? यानी सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण जरुरी था, जो फिर अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करे ।

ब्रह्मा-विष्णु-महेश परम् अात्मा हैं । इनमें से श्रेष्ठ कौन है ? इसका निर्णय आखिर हो तो कैसे ? भृगु ने इसका दायित्व सम्भाला । वह देवों की परीक्षा लेने चले । ऋषियों से विदा लेकर वह सर्व प्रथम अपने पिता ब्रह्मदेव के पास पहुँचे ।

ब्रह्मा जी की परीक्षा लेने के लिए भृगु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया । इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और उन्हें शिष्टता सिखाने का प्रयत्न किया । भृगु को गर्व था कि वह तो परीक्षक हैं, परीक्षा लेने आए हैं । पिता-पुत्र का आज क्या रिश्ता ? भृगु ने ब्रह्म देव से अशिष्टता कर दी । ब्रह्मा जी का क्रोध बढ़ गया और अपना कमण्डल लेकर पुत्र को मारने भागे । भृगु किसी तरह वहाँ से जान बचाकर भाग चले आए ।

इसके बाद वह शिव जी के लोक कैलाश गए । भृगु ने फिर से धृष्टता की । बिना कोई सूचना का शिष्टाचार दिखाए या शिव गणों से आज्ञा लिए सीधे वहाँ पहुँच गए, जहाँ शिव जी माता पार्वती के साथ विश्राम कर रहे थे । आए तो आए, साथ ही अशिष्टता का आचरण भी किया । शिव जी शांत रहे, पर भृगु न समझे । शिव जी को क्रोध आया तो उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया । भृगु वहाँ से भागे ।

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अन्त में वह भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे । श्री हरि शेष शय्या पर लेटे निद्रा में थे और देवी लक्ष्मी उनके चरण दबा रही थीं । महर्षि भृगु दो स्थानों से अपमानित करके भगाए गए थे । उनका मन बहुत दुखी था । विष्णु जी को सोता देख । उन्हें न जाने क्या हो गया और उन्होंने विष्णु जी को जगाने के लिए उनकी छाती पर एक लात जमा दी ।

विष्णु जी जाग उठे और भृगु से बोले “हे ब्राह्मण देवता ! मेरी छाती वज्र समान कठोर है और आपका शरीर तप के कारण दुर्बल है, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आयी ? आपने मुझे सावधान करके कृपा की है । आपका चरण चिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा ।”

भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने तो भगवान की परीक्षा लेने के लिए यह अपराध किया था । परन्तु भगवान तो दण्ड देने के बदले मुस्करा रहे थे । उन्होंने निश्चय किया कि श्रीहरि जैसी विनम्रता किसी में नहीं । वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं । लौट करके उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनायी । सभी ने एक मत से यह निर्णय किया कि भगवान विष्णु को ही यज्ञ का प्रधान देवता समझकर मुख्य भाग दिया जाएगा ।

लेकिन लक्ष्मी जी ने भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया । परन्तु उन्हें इस बात पर क्षोभ था कि श्रीहरि ने उद्दण्ड को दण्ड देने के स्थान पर उसके चरण पकड़ लिए और उल्टे क्षमा मांगने लगे ! क्रोध से तमतमाई महालक्ष्मी को लगा कि वह जिस पति को संसार का सबसे शक्तिशाली समझती है, वह तो निर्बल हैं । यह धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश कैसे करते होंगे ?

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महालक्ष्मी ग्लानि में भर गई और मन श्रीहरि से उचाटन हो गया । उन्होंने श्रीहरि और बैकुण्ठ लोक दोनों के त्याग का निश्चय कर लिया । स्त्री का स्वाभिमान उसके स्वामी के साथ बंधा होता है । उनके समक्ष कोई स्वामी पर प्रहार कर गया और स्वामी ने प्रतिकार भी न किया, यह बात मन में कौंधती रही । यह स्थान वास के योग्य नहीं । पर, त्याग कैसे करें ? श्रीहरि से ओझल होकर रहना कैसे होगा ? वह उचित समय की प्रतीक्षा करने लगीं ।

श्रीहरि ने हिरण्याक्ष के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए वराह अवतार लिया और दुष्टों का संहार करने लगे । महालक्ष्मी के लिए यह समय उचित लगा । उन्होंने बैकुण्ठ का त्याग कर दिया और पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं ।
तप करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया । विष्णु जी वराह अवतार का अपना कार्य पूर्ण कर वैकुण्ठ लौटे तो महालक्ष्मी नहीं मिलीं । वह उन्हें खोजने लगे ।

श्रीहरि ने उन्हें तीनों लोकों में खोजा किन्तु तप करके माता लक्ष्मी ने भ्रमित करने की अनुपम शक्ति प्राप्त कर ली थी । उसी शक्ति से उन्होंने श्री हरि को भ्रमित रखा । आख़िर श्रीहरि को पता लग ही गया । लेकिन तब तक वह शरीर छोड़ चुकीं थीं । दिव्य दृष्टि से उन्होंने देखा कि लक्ष्मी जी ने चोलराज के घर में जन्म लिया है । श्रीहरि ने सोचा कि उनकी पत्नी ने उनका त्याग सामर्थ्यहीन समझने के भ्रम में किया है, इसलिए वह उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए अलौकिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे।

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