

लालबहादुर शास्त्री जी का जीवन उनकी सादगी, ईमानदारी और दृढ़ सिद्धांतों के लिए याद किया जाता है। आज राजनीति में सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी तलाशना कठिन हो चला है।
शास्त्री जी के व्यक्तित्व के अनेक अनछुए पहलू हैं , किंतु व्यक्तिगत रूप से तथा सार्वजनिक स्तर पर सदैव ईमानदारी उनकी महान चरित्र-शक्ति थी। जो आज खासतौर पर प्रासंगिक तथा अनुकरणीय है।
शास्त्री जी का निजी जीवन उनके सिद्धांतों का स्पष्ट प्रतिबिंब था। वे न केवल सार्वजनिक जीवन में बल्कि व्यक्तिगत रिश्तों में भी ईमानदारी और नियमों का पालन करते थे।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब शास्त्री जी जेल में थे, तो उनकी पत्नी ललिता देवी उनसे मिलने आईं और अपनी साड़ी के पल्लू में दो आम छिपाकर लाईं।
यह जानकर शास्त्री जी इतना नाराज हुए कि उन्होंने जेल के नियमों का उल्लंघन करने के विरोध में अपनी ही पत्नी के खिलाफ धरना दे दिया। उनका तर्क था कि एक कैदी का इस तरह बाहर का सामान लेना कानून का अपमान है ।
जेल में बंदी रहने के दौरान उनकी बेटी गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। उन्हें 15 दिन की पैरोल पर रिहा किया गया, लेकिन दुर्भाग्यवश उससे पहले ही उनकी बेटी का निधन हो गया। इस गहन दुख की घड़ी में भी शास्त्री जी निर्धारित समय से पहले ही स्वेच्छा से जेल वापस लौट गए ।
अपने विवाह में उन्होंने दहेज के रूप में एक चरखा और हाथ से बुने कुछ मीटर कपड़े ही स्वीकार किए थे, जो उस समय की प्रचलित सामाजिक प्रथाओं के बिल्कुल विरुद्ध एक सशक्त उदाहरण था।
प्रधानमंत्री जैसे उच्च पद पर रहते हुए भी शास्त्री जी ने कभी भी सरकारी संसाधनों का व्यक्तिगत उपयोग नहीं किया और अपनी ईमानदारी के लिए एक उच्च मिसाल कायम की। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी शास्त्री जी के पास अपनी खुद की कार नहीं थी। परिवार के आग्रह पर उन्होंने एक फिएट कार खरीदने का फैसला किया।
उनके पास पूरी राशि नहीं थी, इसलिए उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से ₹5,000 का कर्ज लिया। दुर्भाग्यवश, कर्ज चुकाने से पहले ही उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी ललिता देवी ने सरकार द्वारा कर्ज माफ करने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए, अपनी पेंशन से चार साल में यह कर्ज चुका दिया ।
एक बार जब उन्हें पता चला कि उनके बेटे की नौकरी में अनुचित तरीके से पदोन्नति हुई है, तो वे बहुत नाराज हुए और उन्होंने तुरंत उस पदोन्नति को रद्द करने का आदेश दिया । एक बार उनके पुत्र ने किसी निजी काम के लिए उनकी सरकारी कार का इस्तेमाल किया।
इस पर शास्त्री जी ने न केवल ड्राइवर से पूछताछ करके उस यात्रा का हिसाब लगवाया, बल्कि यह निर्देश भी दिया कि उस यात्रा का पूरा खर्च उनके निजी खर्चे से सरकारी कोष में जमा कराया जाए ।
शास्त्री जी ने अपने छोटे से कार्यकाल में देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की।
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान देश में भयंकर सूखा और खाद्य संकट पैदा हो गया था। इन चुनौतियों से निपटने के लिए उन्होंने 'जय जवान, जय किसान' का प्रसिद्ध नारा दिया, जिसने सेना और किसानों का मनोबल बढ़ाया।
खाद्यान्न संकट को दूर करने के लिए उन्होंने 'हरित क्रांति' को बढ़ावा दिया। साथ ही, दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए 'श्वेत क्रांति' की नींव रखी और 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास संस्थान का गठन किया, जिसने 'अमूल' जैसी सहकारी समितियों को बढ़ावा दिया।
खाद्य संकट की घड़ी में उन्होंने देशवासियों से सप्ताह में एक बार एक वक्त का भोजन छोड़ने की अपील की। उन्होंने इसकी शुरुआत अपने परिवार से की, जहाँ सभी ने सिर्फ एक वक्त भोजन करना और बच्चों को शाम को फल व दूध ही देना स्वीकार किया ।
उनकी सादगी केवल जीवनशैली तक सीमित नहीं थी, बल्कि उनके फैसलों में भी दिखाई देती थी। एक बार जब वे गृहमंत्री थे, तो कलकत्ता में यातायात जाम के कारण समय पर एयरपोर्ट नहीं पहुंच पा रहे थे।
पुलिस कमिश्नर ने उनके काफिले के आगे सायरन लगी कार भेजने का प्रस्ताव रखा, लेकिन शास्त्री जी ने यह कहकर मना कर दिया कि वे "कोई बड़े आदमी नहीं हैं"।
एक बार कपड़े की दुकान पर साड़ियाँ खरीदते समय दुकानदार ने उन्हें मुफ्त में कीमती साड़ियाँ देने की पेशकश की। शास्त्री जी ने न केवल यह पेशकश ठुकरा दी, बल्कि दुकान में मौजूद सबसे सस्ती साड़ियाँ ही खरीदीं और उनकी कीमत अदा करके चले गए।
लाल बहादुर शास्त्री जी का पूरा सार्वजनिक जीवन ईमानदारी का अप्रतिम उदाहरण है।
*विनायक फीचर्स*


















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