

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही एक महान दार्शनिक, समाजसेवी और राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें ‘एकात्मता’ का जीवंत पर्याय कहा जा सकता है। एक साधारण परिवार में जन्मे प. दीनदयाल उपाध्याय ने अपने जीवन को राष्ट्रसेवा और मानवीय मूल्यों के प्रचार में समर्पित कर दिया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक बने, भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य और बाद में उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भी।
लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान ‘एकात्म मानववाद’ के रूप में सामने आया, जो भारतीय विकास के लिए एक स्वदेशी दर्शन है। यह दर्शन न तो पूंजीवाद की भौतिकवादिता को अपनाता है और न ही साम्यवाद की वर्ग-संघर्ष की हिंसा को। बल्कि, यह मानव को सृष्टि के केंद्र में स्थापित करते हुए एक समग्र, एकात्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय को एकात्मता का पर्याय इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने मानव जीवन के सभी आयामों-शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक,को एक सूत्र में बांध दिया।
आज जब विश्व आर्थिक असमानता, पर्यावरण संकट और नैतिक पतन से जूझ रहा है, तो उनका दर्शन प्रासंगिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उनके विचारों में एकता की भावना इतनी गहरी थी कि वे व्यक्ति को समाज से अलग नहीं मानते थे, बल्कि दोनों को एक-दूसरे का पूरक बताते थे। उदाहरण के लिए, वे अक्सर कहते थे कि “मानव का विकास तभी संभव है जब वह अपने आस-पास की सृष्टि के साथ सामंजस्य स्थापित करे।
” यह विचार भारतीय वेदांत दर्शन से प्रेरित था, जहां ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अवधारणा मानव को ब्रह्मांड का हिस्सा बनाती है। दीनदयाल जी ने इस प्राचीन ज्ञान को आधुनिक संदर्भ में ढाला, जिससे उनका दर्शन न केवल भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रासंगिक बना। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन संघर्षों और त्याग की मिसाल है।
मात्र सात वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता को खो दिया और नौ वर्ष की उम्र में मां का साया भी छिन गया। अनाथ हो जाने के बावजूद, उन्होंने अपनी शिक्षा में कभी रुकावट नहीं आने दी। उनके मामा ने उन्हें पाला और शिक्षा दी। उन्होंने कानपुर से मैट्रिक पास किया, फिर पिलानी से इंटरमीडिएट।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बीए करने के बाद, उन्होंने संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। शिक्षा के दौरान वे विभिन्न छात्र संगठनों से जुड़े और राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित हुए। 1937 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और मात्र 23 वर्ष की आयु में प्रचारक बन गए।
प्रचारक के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में संघ कार्य का विस्तार किया। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर लोगों को संगठित किया, शिक्षा और स्वास्थ्य शिविर लगाए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे सक्रिय रहे और जेल भी गए।
1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
वे जनसंघ के महासचिव बने और संगठन को मजबूत करने के लिए अथक प्रयास किए। 1967 में वे जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। लेकिन उनका राजनीतिक सफर छोटा रहा। 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई, जिसकी जांच आज भी रहस्य बनी हुई है।
कुछ सिद्धांतों के अनुसार यह राजनीतिक षड्यंत्र था, जबकि आधिकारिक रिपोर्ट दुर्घटना बताती है। मात्र 51 वर्ष की आयु में वे चले गए, लेकिन उनके विचार अमर हो गए। उनकी मौत के बाद जनसंघ ने उनकी स्मृति में कई कार्यक्रम आयोजित किए, और आज भी मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन कर दिया गया है।
दीनदयाल उपाध्याय का जीवन सादगी, अनुशासन और सेवा का प्रतीक था। वे कभी सत्ता के लोभ में नहीं पड़े। जनसंघ को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है- “राजनीति का उद्देश्य सत्ता प्राप्ति नहीं, बल्कि सेवा है।
” उनका जीवन एकात्मता का जीता-जागता उदाहरण था, जहां व्यक्तिगत सुख को त्यागकर सामूहिक कल्याण को प्राथमिकता दी जाती है। वे कभी महंगे कपड़े या सुख-सुविधाएं नहीं अपनाते थे। एक बार जब वे जनसंघ के अध्यक्ष बने, तो उन्होंने कहा कि “मैं पद का दुरुपयोग नहीं करूंगा, बल्कि इसे सेवा का माध्यम बनाऊंगा।
” उनके सहयोगी बताते हैं कि वे हमेशा साइकिल से यात्रा करते थे और सादा भोजन करते थे। यह सादगी उनके दर्शन का हिस्सा थी, जो भौतिकवाद से दूर रहने की सलाह देती है।
एकात्म मानववाद पंडित दीनदयाल उपाध्याय का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। यह दर्शन 1965 में बॉम्बे (अब मुंबई) में आयोजित भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में विस्तार से प्रस्तुत किया गया।
‘एकात्म’ शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘एक साथ जुड़ा हुआ’ या ‘समग्र’। मानववाद का तात्पर्य मानव को केंद्र में रखना है। इस दर्शन के अनुसार, मानव सृष्टि का अभिन्न अंग है। वह न तो केवल भौतिक शरीर है और न ही आत्मा का अलगाव। बल्कि, वह शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का एकात्मिक संयोग है।
दीनदयाल जी कहते थे, “मानव को उसके सम्पूर्ण रूप में देखना ही एकात्म मानववाद है।” उन्होंने इस दर्शन को चार व्याख्यानों में प्रस्तुत किया, जो बाद में पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। एकात्म मानववाद की बुनियाद भारतीय दर्शन पर है।
उपनिषदों की ‘तत्वमसि’ (तू वही है) की अवधारणा को आधुनिक संदर्भ में ढालते हुए, दीनदयाल जी ने कहा कि मानव और सृष्टि एक हैं। यह दर्शन पर्यावरण संरक्षण को भी प्रोत्साहित करता है, क्योंकि मानव प्रकृति का शोषक नहीं, रक्षक है।
1960 के दशक में जब नेहरूवादी समाजवाद भारत में प्रचलित था, तो यह दर्शन एक वैकल्पिक पथ दिखाता था। नेहरू मॉडल में बड़े उद्योग और सरकारी नियंत्रण पर जोर था, लेकिन दीनदयाल जी ने विकेंद्रीकरण की वकालत की।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद को पश्चिमी विचारधाराओं की आलोचना के रूप में प्रस्तुत किया। पूंजीवाद व्यक्ति को उपभोक्ता बनाता है, जहां लाभ ही सर्वोपरि है। इससे असमानता बढ़ती है। साम्यवाद राज्य को सर्वशक्तिमान बनाता है, जिससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता दम तोड़ती है।
दीनदयाल जी ने कहा, “ये दोनों दर्शन मानव को खंडित करते हैं-एक भौतिक को महत्व देता है, दूसरा सामूहिक को।” एकात्म मानववाद इनकी बजाय समग्रता पर जोर देता है।
इस दर्शन की प्रासंगिकता आज के वैश्विक संकटों में स्पष्ट है। जलवायु परिवर्तन के दौर में, एकात्मता प्रकृति-मानव एकता सिखाती है।
कोविड-19 महामारी ने दिखाया कि भौतिकवाद अकेला पर्याप्त नहीं। लोग आध्यात्मिक शांति की तलाश में लगे। दीनदयाल जी का अंत्योदय आज ‘सबका साथ, सबका विकास’ के रूप में मोदी सरकार की नीतियों में प्रतिबिंबित होता है।
आत्मनिर्भर भारत अभियान, किसान सम्मान निधि और ग्रामीण विकास योजनाएं उनके विचारों से प्रेरित हैं। 2025 में, जब भारत ‘विकसित भारत’ की ओर अग्रसर है, तो यह दर्शन सतत विकास का आधार बन रहा है। साभार: विनायक फीचर्स


























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