मन को साध लेना ही जीवन की साधना है। जिसका मन वश में नहीं है, वही इंसान तो विवश है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ये मन बड़ा ही चंचल, प्रमथ स्वभाव वाला, दृढ़ और बलवान है। इसलिए इसे रोकना वायु को रोकने जैसा है। सबसे पहले मन को जीतना है।
भगवान कहते हैं मन ना तो कभी तृप्त होता है और ना ही एक क्षण के लिए शांत बैठता है। यह अभाव और दुःख की ओर बार- बार ध्यान आकर्षित कराता रहता है।
थोड़ा सा सम्मान कम मिलने पर अकारण ही यह अपमान होने का अहसास कराता है। मन ही तो मान-अपमान का बोध कराता है। अशांति कहीं और से नहीं आती, भीतर से आती है, इसका जन्मदाता मन है।
जिसने मन को साध लिया वही तो मुनि है। निरन्तर अभ्यास से इस मन को नियंत्रित किया जा सकता है। जो भीतर शांत है उसके लिए बाहर भी सर्वत्र शांति है। निरंतर अभ्यास से मन को नियंत्रित करने का प्रयास करें क्योंकि जो मन से हार जाता है फिर वो सब से हार जाता है। जिसने मन को वश में कर लिया समझो दुनिया उसकी मुठ्ठी में कैद है।
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